Aise Samaj Par Bajra Gire ।। By Rajhans
ऐसे समाज पर बज्र गिरे
गोदी से तो उतरी ही॑ थी,
भरने को जग में किलकारी।
एक बंधन में मुझे बांध दिया,
बन गई दूसरे की हम प्यारी।।
गोदी में मैं ससुराल चली,
मां बाप के प्यार तोड़कर मैं।
चल दी नैनों में आंसू ले ,
सब संगी साथी छोड़ के मैं।।
सब कहता था हो गई शादी,
मैं क्या जानूं शादी-वादी।
मैं इतना समझ ना पाई थी,
होने वाली है बर्बादी।।
जब बारह वर्ष की हो गई मैं,
मन उपवन वन के झूम रही ।
चेहरे की मादकता ऐसी,
हर कलियां जैसे चूम रही।
अंकुरित हुआ था उनका भी ,
अब प्रेम सजल रस पाने को।
कर प्रेम उदित मेरे मन में ,
सपनों की बांध बनाने को।।
थे मन में बांध रहे कितने,
ही पूल मनोरथ के सपने।
लगती ना मुझको दुःख होगी,
यह सब तो है मेरे अपने।।
एक दिन वह ऐसे चिल्लाए,
रह-रहकर हिचकी भी आए ।
कितने डॉक्टर और वैद्य आए,
कोई भी ठीक न कर पाए।।
व्याकुल होकर कुछ कहने को,
जैसे ही थोड़ा जोर दिया ।
कुछ कह भी ना पाया मुझको ,
इस दुनिया को छोड़ गया।।
हाथों की लहठी टूट गई ,
और मिट गई माथे की सिंदूर ।
मुझको दुनिया में रोने को,
छोड़ गए वह मुझसे दूर ।।
ऐसे समाज पर बज्र गिरे ,
धंस जाए बीच रसातल में।
बचपन में जो बच्चे ब्याहे,
फट जाए हृदय उन्हें पल में।।
धन्यवाद
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